अलंकार
अलंकार - अलंकार के भेद, प्रकार और उदाहरण up board class 11
अलंकार up board class 11 |
मनुष्य स्वभाव से ही सौंदर्य प्रेमी होता है वह अपनी प्रत्येक वस्तु को सुंदर और सुसज्जित देखना चाहता है तथा अपनी बातों को भी इस प्रकार कहना चाहता है कि सुनने वाले पर उसका स्थाई प्रभाव पड़े और वह चमत्कृत भी हो जाए ।
काव्य की शोभा-वृद्धि करने वाले इन तत्त्वों का काव्य में वही स्थान है, जो शरीर में आभूषणों (अलंकरणों) का। अत: काव्य की शोभा वृद्धि करने वाले इं तत्वों का काव्य में वहीं स्थान है। जो शरीर में आभूषणों का।
अतः काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्वों को अलंकार कहते हैं- “काव्यशोभाकरान्। धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते। " मुख्य रूप से अलंकार के दो भेद माने जाते है -
(क) शब्दालंकार तथा (ख) अर्थालंकार
जहां काव्य की शोभा का कारण शब्द हो वहां शब्दालंकार और जहां शोभा का कारण अर्थ होगा अर्थालंकार होता है यदि काव्य में शब्द और अर्थ दोनों के चमत्कार एक साथ विद्यमान हो वहां उभयालंकार अर्थात दोनों अलंकार होते हैं शब्दालंकार में यदि काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले शब्द विशेष को बदल दिया जाए तो अलंकार समाप्त हो जाता है जैसे- 'कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय' मै कनक शब्द की सार्थक आवृत्ति के कारण यमक अलंकार है पहले कनक का अर्थ स्वर्ण और दूसरे का अर्थ धतूरा है।
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शब्दालंकार
अनुप्रास यमक और श्लेष शब्दालंकार है।
1. अनुप्रास
वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते हैं, अर्थात् जहाँ समान वर्गों की बार-बार आवृति हो चाहे उनके स्वर मिलें या न मिलें, अनुप्रास अलंकार होता है; जैसे
तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये ॥
यहाँ पर ' त ' वर्ण की आवृत्ति हुई है; अत: अनुप्रास अलंकार है।
अनुप्रास अलंकार के पाँच भेद होते हैं—
(1) छेकानुप्रास, (2) वृत्यनुप्रास, (3) श्रुत्यनुप्रास, (4) लाटानुप्रास (5) अन्त्यानुप्रास।
(1) छेकानुप्रास – जहाँ एक वर्ण की आवृत्ति एक बार होती है अर्थात् एक वर्ण दो बार आता है वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है; जैसे
इस करुणा-कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती।
उपर्युक्त पंक्ति में ' क ' की आवृत्ति एक बार हुई है; अत: छेकानुप्रास अलंकार है।
(2) वृत्यनुप्रास-जहाँ एक अथवा अनेक वर्णों की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास अलंकार होता है।
जैसे-
चारु चन्द्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल थल में।
यहाँ ' च ' और ' ल ' वर्णों की आवृत्ति दो से अधिक बार हुई है; अतः वृत्यनुप्रास अलंकार है।
3. श्रुत्यनुप्रास - जहां कंठ, तालु, दंत्य आदि एक ही स्थान से उच्चरित होने वाले वर्णों की आवृति हो, वहां श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है जैसे -
रामकृपा भाव- निशा सिरानी जगे पुनि न डसैहौं।
इस पंक्ति में 'स्' और 'न्' जैसे दन्त्य वर्णों; अर्थात् जिव्हा द्वारा दंत्य पंक्ति से उच्चरित वर्णों की आवृत्ति के कारण श्रुत्यनुप्रास अलंकार है।
4. लाटानुप्रास- जहां एक ही अर्थ वाले शब्दों की आवृत्ति होती है, किन्तु अन्वय की भिन्नता से अर्थ बदल जाता है, वहां लाटानुप्रास अलंकार होता है; जैसे -
पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै?
यहाँ उन्हीं है शब्दों की आवृत्ति होने पर भी पहली का पंक्ति के शब्दों का अन्वय ‘ सपूत ' के साथ और दूसरी का ' कपूत ' के साथ
लगता है जिससे अर्थ बदल जाता है। पद्य का भाव यह है कि यदि तुम्हारा बेटा सपूत है तो धन-संचय की आवश्यकता नहीं,
क्योंकि वह स्वयं कमाकर धन का ढेर लगा देगा और यदि वह कपूत है तो भी धन-संचय निरर्थक है; क्योंकि वह सारा धन
दुर्व्यसनों में उड़ा देगा। इस प्रकार यहाँ लाटानुप्रास अलंकार है।
(5) अन्त्यानुप्रास- जहाँ कविता के पद या अन्तिम चरण में समान वर्ण (स्वर या व्यंजन) आने से तुक मिलती है, वह अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है; जैसे-
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करै भौंहनु हँसै, दैन कहै नटि जाइ ॥
यहाँ प्रथम और द्वितीय दोनों चरणों के अन्त में ' आई ' की आवृत्ति से अन्त्यानुप्रास अलंकार है। इस प्रकार यह अलंकार केवल तुकान्त छन्दों में ही होता है।
2. यमक
जब कोई शब्द या शब्दांश एकाधिक बार आता है और प्रत्येक बार भिन्न-भिन्न अर्थ प्रकट करता है, तब यमक अलंकार होता
है; जैसे
कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय जग, या पाये बौराय ॥
यहाँ ‘ कनक ' शब्द दो बार आया है और दोनों बार उसके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। पहले ' कनक ' का अर्थ धतूरा ' और दूसरे का
' सोना ' है; अत: यहाँ यमक अलंकार है।
यमक अलंकार के दो मुख्य भेद होते हैं
(1) अभंगपद- जहाँ दो पूर्ण शब्दों की समानता हो, वहाँ अभंगपद यमक अलंकार होता है। इसमें शब्द पूर्ण होने के कारण
दोनों शब्द सार्थक होते हैं; जैसे-
कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
(2) सभंगपद- जहाँ शब्दों को भंग करके (तोड़कर) अक्षर समूह की समता बनती हो, वहाँ सभंगपद यमक अलंकार होता
है। इसमें एक या दोनों अक्षर-समूह सार्थक होते हैं; जैसे-
तेरी बरछी ने बर छीने, हैं खलन के।
3. श्लेष
जब एक ही शब्द बिना आवृत्ति के दो या से अधिक अर्थ प्रकट करे, तब वहाँ श्लेष अलंकार होता है; जैसे
चिरजीवौ जोड़ी5 जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।
को घटि ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर ॥
यहां 'वृषभानुजा' तथा 'हलधर' के दो अर्थ हैं - (1) वृषभानुजा = वृषभानु + जा = वृषभानुजा की पुत्री (राधा) तथा (2) वृषभ + अनुजा ' तथा = बैल की बहन (गाय) । हलधर = (1) हल को धारण करने वाले अर्थात् बलराम तथा(2) हल को धारण करने वाला अर्थात् बैल। इस प्रकार यहाँ ' वृषभानुजा ' और 'हलधर' में श्लेष अलंकार है।
विशेष —यमक और श्लेष में यह अंतर है कि यमक में किसी शब्द की आवृत्ति होती है तथा एकाधिक अर्थ होते हैं और श्लेष में बिना आवृत्ति के ही शब्द के एकाधिक अर्थ होते हैं।
अर्थालंकार
1.उपमा
समान धर्म के आधार पर जहाँ एक वस्तु की समानता या तुलना किसी दूसरी वस्तु से जाती है, वहाँ उपमा अलंकार माना जाता है। सामान्य अर्थो में उपमा का तात्पर्य सादृश्य, समानता तथा तुलना से लगाया जाता है; जैसे -
(1)मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है।
(2) तापसबाला-सी गंगा कल।
उपमा अलंकार के निम्नलिखित चार अंग होते हैं
(1) उपमेय- जिसके लिए उपमा दी जाती है; जैसे -मुख, गंगा (उपर्युक्त उदाहरणों में)
(2) उपमान- उपमेय की जिसके साथ तुलना की जाती है; जैसे - चंद्रमा, तापसबाला
(3) साधारण धर्म - जिस गुण या विषय में उपमेय और उपमान की तुलना की जाती है; जैसे — सुन्दर (सुन्दरता), कलता (सुहावनी)
(4) वाचक शब्द से- जिस शब्द के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता व्यक्त की जाती है; जैसे — समान, सी, तुल्य, इव, सरिस, जिमि, जैसा आदि।
ये चारों अंग जहाँ पाये जाते हैं, वहाँ पूर्णोपमा अलंकार होता है; जैसा उपर्युक्त दोनों उदाहरणों में है।
लुप्तोपमा- जहां उपमा अलंकार के चारो अंगों ( उपमेय, उपमान, साधारण धर्म, और वाचक शब्द) में से किसी एक अथवा दो या तीन अंगों का लोप होता है, वहां लुप्तोपमा अलंकार होता है। लुप्तोपमा अलंकार चार प्रकार के होते हैं -
(i)धर्म- लुप्तोपमा -जिसमें साधारण धर्म का लोप हो; जैसे — ' तापसबाला-सी गंगा। ' यहाँ धर्म-लुप्तोपमा है; क्योंकि यहाँ ‘ सुन्दरता ' रूपी गुण का लोप है।
(ii) उपमान-लुप्तोपमा – जिसमें उपमान का लोप हो; जैसे
जिहिं तुलना तोहिं दीजिए, सुवरन सौरभ माहिं।
कुसुम तिलक चम्पक अहो, हौं नहिं जानौं ताहिं।
अर्थात् समकक्ष सुन्दर वर्ण और सुगन्ध में तेरी तुलना किस पदार्थ से की जाए, उसे मैं नहीं जानता; क्योंकि तिलक, चम्पा आदि पुष्प तेरे समकक्ष नहीं ठहरते। यहाँ उपमान लुप्त है; क्योंकि जिससे तुलना की जाए, वह ज्ञात नहीं है।
(iii) उपमेय-लुप्तोपमा – जिसमें उपमेय का लोप हो; जैसे — ' कल्पलता-सी अतिशय कोमल। ' यहाँ उपमेय-लुप्तोपमा है; क्योंकि कल्पलता-सी कोमल ' कौन है, यह नहीं बताया गया है।
(iv) वाचक-लुप्तोपमा – जिसमें वाचक शब्द का लोप हो; जैसे-
नील सरोरुह स्याम, तरुन अरुन बारिज-नयन।
यहाँ शब्द ' समान ' या उनके पर्यायवाची अन्य किसी शब्द का लोप है; अतः इसमें वाचक-लुप्तोपमा अलंकार है।
विशेष - जहां उपमेय (जिसके लिए उपमा दी जाती है) का उत्कर्ष दिखाने के लिए अनेक उपमान एकत्र किए जायँ, वहाँ मालोपमा अलंकार होता है; जैसे-
हिरनी से मीन से, सुखंजन समान चारु।
अमल कमल-से विलोचन तुम्हारे हैं।।
उपर्युक्त पद में आँखों की तुलना अनेक उपमानों (हिरनी से, मीन से, सुखंजन समान, कमल से) से की गयी है। अत: यहाँ पर मालोपमा अलंकार है।
2.उत्प्रेक्षा- जहां उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाये, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है; जैसे
सोहत ओढ़े पीतु पटु, स्याम सलोने गात।
मनौ नीलमनि सैल पर, आतपु पर्यो प्रभात ॥
यहां पीताम्बर ओढ़े हुए श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) की प्रातःकालीन सूर्य की प्रभा से सुशोभित नीलमणि पर्वत (उपमान) के रूप में सम्भावना किये जाने से उत्प्रेक्षा अलंकार है।
‘ मनौ ' यहाँ पर वाचक शब्द है। इस अलंकार में जनु, जनहुँ, मनु, मनहुँ, मानो आदि वाचक शब्द अवश्य आते हैं। उत्प्रेक्षा अलंकार के तीन भेद होते हैं -
(1)वस्तूत्प्रेक्षा – जहाँ किसी उपमेय (प्रस्तुत) वस्तु में किसी उपमान (अप्रस्तुत) वस्तु की सम्भावना की जाती है, वहाँ
वस्तूप्रेक्षा होती है; यथा
सखि सोहति गोपाल के, उर गुंजन की माल।
बाहिर लसति मनो पिये, दावानल की ज्वाल ॥
'गुंजन की माल ' उपमेय में ' दावानल की ज्वाल ' उपमान की सम्भावना की गयी है।
(2) हेतूत्प्रेक्षा – जहाँ अहेतु में अर्थात् जो कारण न हो, उसमें हेतु की सम्भावना की जाय, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा होती है, यथा
रवि अभाव लखि रैनि में, दिन लखि चन्द्रविहीन।
सतत उदित इहिं हेतु जनु, यश प्रताप मुख कीन।
राजा के यश प्रताप के सतत देदीप्यमान होने का हेतु रात्रि में सूर्य का और दिन में चन्द्र का अभाव बताया गया है, अत: अहेतु में
हेतु की सम्भावना की गयी है।
(3) फलोत्प्रेक्षा – जहाँ अफल में फल की सम्भावना की जाय, वहाँ फलोत्प्रेक्षा होती है; यथा
पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा। मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा ॥
पुष्पों में स्वाभाविक रूप से सुगन्ध होती है, परन्तु यहाँ जायसी ने पुष्पों की सुगन्ध विकीर्ण होने का फल बताया है, जिससे
सम्भवतः पद्मावती उन्हें अपनी नासिका में लगा ले। इस प्रकार यहाँ अफल में फल की सम्भावना की गयी है।
उपमा और उत्प्रेक्षा में अन्तर – उपमा अलंकार में ' उपमेय ' और ' उपमान ' में समानता निश्चयपूर्वक प्रकट की जाती है।
जैसे– “मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है '। यहाँ मुख (उपमेय) और चन्द्रमा (उपमान) में सुन्दरता (समान धर्म) के आधार
पर समानता स्थापित की गयी है। उत्प्रेक्षा अलंकार में ' उपमेय ' और ' उपमान ' में समानता की सम्भावना मात्र प्रकट की जाती है।
वह निश्चित रूप से स्थापित नहीं की जाती; जैसे — ' मुख मानो चन्द्रमा है '।
3.रूप्रक
जहाँ उपमेय और उपमान में अभिन्नता प्रकट की जाए, अर्थात् उन्हें एक ही रूप में प्रकट किया जाए, वहाँ रूपक अलंकार होत
अरुन सरोरुह कर चरन, दृग-खंजन मुख-चंद।
समै आइ सुंदरि-सरद, काहि न करति अनंद ॥
इस उदाहरण में शरद् ऋतु में सुन्दरी का, कमल में हाथ-पैरों का, खंजन में आँखों का और चन्द्रमा में मुख का भेदरहित आरोप
होने से रूपक अलंकार है।
रूपक अलंकार निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं।
(i) सांगरूपक-जहाँ उपमेय पर उपमान का सर्वांग आरोप हो, वहाँ ' सांगरूपक ' होता है; जैसे
उदित उदयगिरि-मंच पर, रघुबर बाल पतंग।
बिकसे सन्त सरोज सब, हरखे लोचन-भुंग ॥ यहाँ रघुबर, मंच, संत, लोचन आदि उपमेयों पर बाल सूर्य,. उदयगिरि, सरोज, भूग आदि उपमानों का आरोप किया गया है; अतः यहाँ सांगरूपक
अलंकार है।
(ii)निरंगरूपक- जहाँ उपमेय पर उपमान का सर्वांग आरोप न हो, वहाँ निरंगरूपक होता है; जैसे-
कौन तुम संसृति-जलनिधि तीर
तरंगों से फेंकी मणि एक ॥
इसमें संसृति (संसार) पर जलनिधि (सागर) का आरोप है, लेकिन अंगों का उल्लेख न होने से यहाँ निरंगरूपक अलंकार है।
(iii) परम्परितरूपक-जहाँ एक रूपक दूसरे रूपक पर अवलम्बित हो, वहाँ परम्परितरूपक होता है; जैसे
बन्दौ पवनकुमार खल-बन-पावक ज्ञान-घन।
यहाँ पवनकुमार (उपमेय) पर अग्नि (उपमान) का आरोप इसलिए सम्भव हुआ कि खलों (दुष्टों) को घना वन (जंगल)
बताया गया है; अत: एक रूपक (खल-वन) पर दूसरे रूपक (पवनकुमाररूपी पावक) के निर्भर होने से यहाँ परम्परितरूपक
अलंकार है।
उपमा और रूपक का अन्तर – उपमा में ' उपमेय ' और ' उपमान ' में समानता स्थापित की जाती है, किन्तु रूपक में
दोनों में अभेद स्थापित किया जाता है; जैसे— “मुख चन्द्रमा के समान है ' ' में उपमा है, किन्तु “मुख चन्द्रमा है ' में रूपक है।
4. भ्रान्तिमान
जहाँ समानता के कारण भ्रमवश उपमेय में उपमान का निश्चयात्मक ज्ञान हो, वहाँ भ्रान्तिमान अलंकार होता है; जैसे-रस्सी
(उपमेय) को साँप (उपमान) समझ लेना।
कपि करि हृदय बिचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब।
जानि अशोक अंगार, सीय हरषि उठि कर गहेउ ॥
यहाँ पर सीताजी श्रीराम की हीरकजटित अँगूठी को अशोक वृक्ष द्वारा प्रदत्त अंगारा समझकर उठा लेती हैं। अंगूठी
(उपमेय) में अंगारे (उपमान) का निश्चयात्मक ज्ञान होने के कारण यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।
5. सन्देह
जब किसी वस्तु में उसी के समान दूसरी वस्तु का सन्देह हो जाए और कोई निश्चयात्मक ज्ञान न हो,तब सन्देह अलंकार होता है; जैसे
कैंधों ब्योम बीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
कैंधों चली मेरु तैं कृसानुसरि भारी हैं।
लंकादहन के उपर्युक्त वर्णन में हनुमान की पूँछ को देखकर यह निश्चय नहीं हो पा रहा है कि आकाश में अनेक पुच्छल तारे हैं या पर्वत से अग्नि की नदी-सी निकल रही की है । अत: यहाँ सन्देह अलंकार नहीं है।
सन्देह और भ्रान्तिमान में अन्तर –
सन्देह अलंकार में उपमेय में उपमान का सन्देहमात्र होता है, निश्चयात्मक ज्ञान नहीं;
जैसे - 'यह रस्सी है या साँप '। इसमें रस्सी(उपमेय) में सांप(उपमान) का संदेह होता है; निश्चय नहीं, किन्तु भ्रान्तिमान उपमान का निश्चय हो जाता है। जैसे- रस्सी को साँप समझकर कहना कि ' यह साँप है '।