भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय | Bhartendu harishchandra ka jeevan parichay


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भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय

  भारतेन्दु हरिश्चन्द्र काशी के इतिहास-प्रसिद्ध सेठ अमीचन्द की वंश-परम्परा में आते हैं। इनका जन्म काशी में सन् 1850 में और मृत्य सन् 1885 ई० में हुई। भारतेन्दु जी नैसर्गिक प्रतिभा से सम्पन्न और अत्यन्त संवेदनशील व्यक्ति थे। इन्होंने 35 वर्ष के अल्प जीवन-काल में हिन्दी-साहित्य की जो श्रीवृद्धि की वह किसी सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव है। ये कवि, नाटककार, निबन्ध-लेखक, सम्पादक समाज-सुधारक सभी कुछ थे। हिन्दी गद्य के तो ये जन्मदाता ही माने जाते हैं। इन्होंने सन् 1868 में 'कवि वचन सुधा' और सन् 1873 में हरिश्चन्द्र मैगजीन' का सम्पादन किया था। आठ अंकों के प्रकाशन के बाद हरिश्चन्द्र मैगजीन' का नाम 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' हो गया। हिन्दी-गद्य को नयी चाल में ढालने का श्रेय 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' को ही दिया जाता है। नाटकों के क्षेत्र में भारतेन्दु जी की देन सर्वाधिक


महत्त्वपूर्ण है। इन्होंने मौलिक और अनूदित सब मिलाकर सत्रह नाटकों की रचना की है

भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएँ

1. विद्या सुन्दर, 2 रत्नावली, 3. पाखण्ड विडम्बन, 4. धनंजय विजय, 5. कर्पूर मंजरी, 6. मुद्राराक्षस, 7. भारत जननी, 8. दुर्लभ बंधु, 9. वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, 10. सत्य हरिश्चन्द्र, 11. श्रीचंद्रावली, 12. विषस्य विषमौषधम्, 13. भारत दुर्दशा, 14. नीलदेवी, 15. अंधेर नगरी, 16. सती प्रताप, 17. प्रेम जोगिनी। नाटकों की ही भाँति भारतेन्दु जी के निबन्ध भी महत्त्वपूर्ण हैं। इन निबन्धों के अध्ययन से इनकी विचारधारा का पूरा परिचय मिल जाता है। ये निबन्ध तत्कालीन, भाषा-व्यंजक, साहित्यिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थिति के भी परिचायक हैं। भारतेन्दु जी ने इतिहास, पुराण, धर्म, भाषा, संगीत आदि अनेक विषयों पर निबन्ध लिखे हैं। इनके निबन्धों के संकलन-1. सुलोचना, 2. मदालसा, 3. लीलावती, 4. परिहास-वंचक, 5. दिल्ली दरबार दर्पण नाम से प्रकाशित हुए। इनके द्वारा जीवनियाँ और


यात्रा-वृत्तान्त भी लिखे गये हैं। यही नहीं, इन्होंने कथा का आधार लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती और केशवचन्द्र सेन के विचारों


की उपयोगिता उपयोगिता के सम्बन्ध में भी अपना मत प्रकट किया है। 'अग्रवालों की उत्पत्ति', 'महाराष्ट्र देश का इतिहास और


'कश्मीर कुसुम' भारतेन्दु जी द्वारा लिखे गये इतिहास-ग्रन्थ है।


शैली की दृष्टि से भारतेन्दु जी ने वर्णनात्मक, विचारात्मक, विवरणात्मक और भावात्मक सभी शैलियों में निबन्ध-रचना की है। इनके द्वारा लिखित 'दिल्ली दरबार दर्पण' इनकी वर्णनात्मक शैली का श्रेष्ठ निदर्शन कराता है। इनके यात्रा वृत्तान्त ( 'सरयूपार की यात्रा', 'लखनऊ की यात्रा' आदि) विवरणात्मक शैली में लिखे गये हैं। 'वैष्णवता और भारतवर्ष' तथा 'भारतव्षोन्नति कैसे हो सकती है? जैसे निबन्ध विचारात्मक है। भावनात्मक शैली का रूप इनके द्वारा लिखित जीवनियो ('सूरदास', 'जयदेव', 'महात्मा मुहम्मद' आदि) तथा ऐतिहासिक निबन्धों में बीच-बीच में मिलता है। इसके अतिरिक्त इनके निबन्धों में शोध-शैली, भाषा-शैली, स्तोत्र-शैली, प्रदर्शन-शैली, कथा-शैली आदि के रूप भी मिलते हैं। वस्तुतः भारतेन्दु जी का व्यक्तित्व बहुमुखी था। ये जो जो कहना चाहते थे, उसके अनुरूप इनकी शैली और भाषा स्वयं ढल जाती थी। भारतेन्दु जी का महत्त्व एक सुलझे हुए मध्यममार्गी विचारक के रूप में भी है। भाषा, साहित्य, समाज, देश, धर्म, जाति की उन्नति के लिए इन्होंने जो सुझाव दिये हैं, वे वर्तमान सन्दों में भी उतने ही उपयोगी हैं जितने तत्कालीन सन्दर्भो में थे। इनकी भाषा व्यावहारिक, बोलचाल के निकट, प्रवाहमयी और जीवन है। विषय के अनुसार उसका रूप बदल तो जाता है किन्तु जिसे स्वय भारतेन्दु जी ने 'शुद्ध हिन्दी' कहा है, वह साफ-सुथरी छोटे छोटे वाक्यों से युक्त सहज और सर्वग्राह्य भाषा है। भारतेन्दु जी अपने युग की सम्पूर्ण चेतना के केन्द्र में अवस्थित थे। ये प्राचीनता के पोषक थे और नवीनता के उन्नायक भी। वर्तमान के व्याख्याता थे और भविष्य के द्रष्टा उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में हिन्दी साहित्य को सही दिशा की ओर अग्रसर करने केলি जिस समन्वयशील प्रतिभा की आवश्यकता थी, वह भारतेन्दु जी के रूप में हिन्दी को प्राप्त हुई थी। अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतेन्दु जी ने समाज में एक नवीन चेतना उत्पन्न की। इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर ही समकालीन पत्रकारों ने इन्हें 'भारतेन्दु की उपाधि से अलंकृत किया था।