जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय । Jaishankar prasad ka jeevan parichay

 प्रश्न : जयशंकरप्रसाद का जन्म कब और कहाँ हुआ था? अथवा जयशंकरप्रसाद के जन्म-मृत्यु पर प्रकाश डालिए। अथवा प्रसादजी की शिक्षा-दीक्षा के विषय में बताइए।

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय । Jaishankar prasad ka jeevan parichay

जीवन परिचय 

प्रसादजी का जन्म काशी के एक सुप्रसिद्ध वैश्य परिवार में सन् 1890* ई० में हुआ था। काशी में उनका परिवार 'सुँघनी साहू' के नाम से प्रसिद्ध था। इसका कारण यह था कि उनके यहाँ तम्बाकू का व्यापार होता था। प्रसादजी के पितामह का नाम शिवरत्न साहू और पिता का नाम देवीप्रसाद था। प्रसादजी के पितामह शिव के परम भक्त और दयाल थे। उनके पिता भी अत्यधिक उदार और साहित्य-प्रेमी थे।


प्रसादजी का बाल्यकाल सुख के साथ व्यतीत हुआ। उन्होंने बाल्यावस्था में ही अपनी माता के साथ धाराक्षेत्र, ओंकारेश्वर पुष्कर, उज्जैन और ब्रज आदि तीर्थों की यात्रा की। अमरकण्टक पर्वतश्रेणियों के बीच, नर्मदा में नाव के द्वारा भी उन्होंने यात्रा की। यात्रा से लौटने के पश्चात् प्रसादजी के पिता का स्वर्गवास हो गया। पिता की मृत्यु के चार वर्ष पश्चात् उनकी माता भी उन्हें संसार में अकेला छोड़कर चल बसीं।


प्रसादजी के पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध उनके बड़े भाई शम्भूरलजी ने किया। सर्वप्रथम प्रसादजी का नाम 'क्वीन्स कॉलेज ' में लिखवाया गया, लेकिन स्कूल की पढ़ाई में उनका मन न लगा; इसलिए उनकी शिक्षा का प्रबन्ध घर पर ही किया गया। घर पर ही वे योग्य शिक्षकों से अंग्रेजी और संस्कृत का अध्ययन करने लगे। प्रसादजी को प्रारम्भ से ही साहित्य के प्रति अनुराग था। वे प्रायः साहित्यिक पुस्तकें पढ़ा करते थे और अवसर मिलने पर कविता भी किया करते थे। पहले तो उनके भाई उनकी काव्य-रचना में बाधा डालते रहे, परन्तु जब उन्होंने देखा कि प्रसादजी का मन काव्य-रचना में अधिक लगता है, तब उन्होंने इसकी पूरी स्वतन्त्रता उन्हें दे दी। प्रसादजी स्वतन्त्र रूप से काव्य-रचना के मार्ग पर बढ़ने लगे। इन्हीं दिनों उनके बड़े भाई शम्भूरलजी का स्वर्गवास हो गया। इससे प्रसादजी के हृदय को गहरा आघात लगा। उनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गई तथा व्यापार भी समाप्त हो गया। पिताजी के समय से ही उन पर ऋण-भार चला आ रहा था। ऋण से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने अपनी सम्पूर्ण पैतृक सम्पत्ति बेच दी। इससे ऋण के भार से उन्हें मुक्ति तो मिल गई, परन्तु उनका जीवन संघर्षों और झंझावातों में ही चक्कर खाता रहा।


यद्यपि प्रसादजी बड़े संयमी थे, किन्तु संघर्ष और चिन्ताओं के कारण उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। उन्हें यक्ष्मा रोग ने धर दबोचा। इस रोग से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने पूरी कोशिश की, किन्तु सन् 1937 ई० की 15 नवम्बर को रोग ने उनके शरीर पर अपना पूर्ण अधिकार कर लिया और वे सदा के लिए इस संसार से विदा हो गए। 

प्रश्न: जयशंकरप्रसाद के रचना-वैविध्य पर प्रकाश डालिए।


प्रसादजी ने नाटक, कहानी, उपन्यास, निबन्ध और काव्य के क्षेत्र में अपनी विलक्षण साहित्यिक योग्यता का परिचय दिया। 'कामायनी' जैसे विश्वस्तरीय महाकाव्य की रचना करके प्रसादजी ने हिन्दी-साहित्य को अमर कर दिया। कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी कई अद्वितीय रचनाओं का सृजन उन्होंने किया। नाटक के क्षेत्र में उनके अभिनव योगदान के फलस्वरूप नाटक विधा में प्रसाद युग' का सूत्रपात हुआ। विषयवस्तु एवं शिल्प की दृष्टि से उन्होंने नाटकों को नवीन दिशा दी। भारतीय संस्कृति, राष्ट्रीय भावना, भारत के अतीतकालीन गौरव आदि पर आधारित 'चन्द्रगुप्त', 'स्कन्दगुप्त' और 'ध्रुवस्वामिनी' जैसे प्रसाद-रचित नाटक विश्व स्तर के साहित्य में अपना बेजोड़ स्थान रखते हैं। काव्य के क्षेत्र में वे छायावादी काव्यधारा के प्रवर्त्तक कवि थे।


[प्रश्न : प्रसादजी की कहानी, उपन्यास, नाटक और निबन्ध से सम्बन्धित एक-एक रचना का नाम लिखिए।


कृतियाँ–प्रसादजी की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं- 

  1. काव्य-'आँसू', 'कामायनी', 'चित्राधार', 'लहर' और 'झरना'। 
  2. कहानी—'आँधी', 'इन्द्रजाल', 'छाया', 'प्रतिध्वनि' आदि।
  3. उपन्यास–'तितली', 'कंकाल' व 'इरावती'।
  4. नाटक-'सज्जन', 'कल्याणी-परिणय', 'चन्द्रगुप्त', 'स्कन्दगुप्त', "अजातशत्रु', 'प्रायश्चित्त', 'जनमेजय का नागयज्ञ', 'विशाख', 'ध्रुवस्वामिनी' आदि।
  5. निबन्ध-काव्यकला एवं अन्य निबन्ध।
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